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सम्पूर्णानंद मिश्र का शब्द-समर/ श्रीधर मिश्र

सम्पूर्णानंद मिश्र का शब्द-समर/ श्रीधर मिश्र

सम्पूर्णानंद मिश्र का शब्द-समर

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संपूर्णानंद मिश्र की कविताएँ पढ़ने से यह महसूस होता है कि वे सोद्देश्य रचनाकार हैं,उनकी कविताएं हमारे समय मे सीधे हस्तक्षेप करती हैं। वे अपनी कविताओं से हमारे समय-समाज व जीवन की समीक्षा करते हैं।उनमें गहन परम्पराबोध है जिससे वे अपनी परम्पराओं का अपने समकालीन सन्दर्भो में पुनर्पाठ करने में सक्षम होते हैं। उनके यहां भारत की जातीय चेतना, मिथकों, विश्वासों व आस्था की समकालीन सन्दर्भों में पुनर्स्थापना मिलती है। वे हमारी हजारों वर्ष पुरानी परम्पराओं के शब्दों को प्रतीकों के रूप में अपनी कविता में इस्तेमाल करते हैं, रावण का राम से वे आज के सामाजिक परिदृश्य के सन्दर्भ में सम्वाद कराते हैं व प्रकारांतर से यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि जिस रावण का हर वर्ष पुतला जलाया जाता है, प्रतीक रूप में उसे हर वर्ष मृत्यु दंड दिया जाता है ,आज समाज मे उस रावण से कई गुना अधिक रावणतत्व के लोग खुला घूम रहे व समादृत हो रहेहैं, इसी बहाने वे रावण का अनुताप भी प्रस्तुत करते हैं, बहुत सारे सचेत कवियों ने हमारे पुराणों, कथानकों, महाकाव्यों के कुछ चरित्रों का पुनर्पाठ किया है,मैथिली शरण गुप्त ने रामायण कथा के दो चरित्रों उर्मिला व कैकेयी का पुनर्पाठ साकेत में किया है, नंदल हितैषी ने महाभारत के कर्ण चरित्र का पुनर्पाठ अपनी एक लम्बी कविता में किया है, यह वही कवि कर पता है जिसमे अपनी परम्पराओं से परिचय होता है ,सम्पूर्णानंद अपने गहन पम्पराबोध के चलते ही अपने गुजरे समय व अपने वर्तमान के बीच एक पुल बनाते हैं जिससे उनकी कविताओं में हजारों वर्ष पुराने इतिहास व संस्कृति की आवाजें मिलती हैं।

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आज के समय मे मजदूरों के पलायन, उनकी दुर्दशा को भी उन्होंने कविता में चरितार्थ कर अपने समय की वर्तमान त्रासदी के सन्दर्भ में हस्तक्षेप किया है, किसी कवि को समझने के लिए आवश्यक यह होता है कि उसकी कविताओं में जीवन वृत्तियां कितनी जागृत हैं उसकी कविता का पक्ष क्या है ,उसकी कविता किसके साथ खड़ी है, सम्पूर्णानंद की कविता कमजोर, असहाय, व सर्वहारा वर्ग के पक्ष में अपनी आवाज उठाती है व एक प्रतिरोध का वातावरण रचती है, उनके यहां रिश्तों की सघन पड़ताल है, वे प्रकृति के स्वायत्त स्वरूप के हामी हैं, अपने आसपास जो घटित हो रहा या जो दिख रहा हो उसे भाषा मे चरितार्थ करना बड़ा दुष्कर काम होता है ,हालांकि कविता का यह बुनियादी काम ही है, सम्पूर्णानंद अनुभव के ऐंद्रिक ग्रहण को बिना अतिरेक व बिंबों के सीधे भाषा मे चरितार्थ करते हैं यह उनके सन्दर्भ में रेखांकित करने योग्य महत्वपूर्ण बात है। आजकल ऐसी कविताओं की भरमार है जो शब्द बहुलता व बिंबों के बाद भी हमे साफ साफ कुछ दिखा नहीं पाती हैं, सम्पूर्णानंद जिस सहज भषिक विन्यास में कविता चरितार्थ करते हैं कि उनकी भाषा जितना बोलती है उतना देखती भी है और हम उसके प्रभाव में कुछ अधिक देख पाने का सामर्थ्य अर्जित कर पाते हैं इन अर्थों में सम्पूर्णानंद की कविताएं पढ़ना मानो दृष्टिवर्ती रचनाएं पढ़ना है, उनके यहां यथार्थ का सौंदर्य है। चेरनसेबसकी ने कहा है कि” यथार्थ का सौंदर्य ही वास्तविक सौंदर्य होता है कलाओं को उसकी ही पुनर्स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए” सम्पूर्णानंद यथार्थ को बड़े ही कलात्मक संयम से कविताओं में पुनर्स्थापित करते हैं जिससे उनमें अतिरिक्त आवेग, आवेश नही आ पाता, जिससे उनकी कविताएं पाठक से एक आत्मीय रिश्ता बनाने में कामयाब होती हैं

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अपने समय से सघन संवाद  करती व अपने समय को रचती इन कविताओं का विशेष महत्व है। सम्पूर्णानंद का जैसे जैसे जीवनानुभव बढ़ेगा उनकी कविताओं में वैचारिक घनत्व की सांद्रता और भी बढ़ेगी, उनकी जीवनदृष्टि प्रखर है अतः उनमें अनन्त संभावनाएं हैं , उम्मीद है आगे भी उनसे इसी प्रकार की अच्छी कविताएं पढ़ने ,सुनने को मिलेंगी।


श्रीधर मिश्र
कवि व वरिष्ठ समालोचक
गोरखपुर
9450829617

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