sookshm avalokan/ दया शंकर का सूक्ष्म अवलोकन
क्या, लोक भाषा में सामान्य बोल–चाल तथा साहित्य की
भाषा में अन्तर नहीं होना चाहिये?
sookshm avalokan: विगत में कुछ लम्बी अवधि से मैं अवलोकन करता आ रहा हूँ कि क्षेत्रीय बोली के नाम पर अधिकतर व्यक्ति,बोलते कुछ हैं और लिखते कुछ हैं ऐसे लोग गुणवत्ता के प्रति सचेत नहीं रहते हैं। फलतः अपेक्षित स्तर का प्रायः अभाव रहता है। विषय-वस्तु, भाव एवम् भाषिक रूप से भी,और शायद इसीलिये स्थानीय स्तर पर ही ऐसे लोग सिमट कर रह जाते हैं। कुछ कहने-बताने पर कुतर्क का सहारा लेने लग जाते हैं कि लोक भाषा हैं। क्या, लोक भाषा में सामान्य बोल-चाल तथा साहित्य की भाषा में अन्तर नहीं होना चाहिये? परिनिष्ठितता का कोई स्थान नहीं? जिन साहित्यकारों ने साधना चाहे, वह कोई भी क्षेत्रीय बोली रही हो अथवा खडी़ बोली हिन्दी रही हो उन्हें पर्याप्त यश प्राप्त हुआ ।
क्षेत्रीय भाषाओं के साधकों को भी अवश्य ही
सम्मान व पुरस्कार प्राप्त होना चाहिये
sookshm avalokan: हिन्दी जगत के महान् साधक, अंगिका, मैथिली और भोजपुरी की अनुपम पहचान बनकर अमर हो गये। क्षेत्रीय भाषाओं के साधकों को भी अवश्य ही सम्मान व पुरस्कार प्राप्त होना चाहिये लेकिन, यह भी सत्य ही कि बरगद के नीचे कोई अन्य पौधा पनप नहीं सकता। येन-केन-प्रकारेण, पौधा कोई पनप भी गया तो वह कुपोषण का शिकार हो ही जाता है क्योंकि प्रारम्भ से ही, सरकारी नीति बहुत स्वस्थ,स्वच्छ नहीं रही है। वोट – कुर्सी – सत्ता की सतायी हुई संस्कृति, संस्था एवम् साहित्य के मध्य, किसी भी भाँति ये संस्कृति, संस्था, साहित्य जीवित बच रहे हैं तो साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार की अपनी मेधा, क्षमता, लगन और राष्ट्रीय तथा नैतिक ईमानदारी के बल पर ही। वैसे,जो पत्र-पत्रिकायें, नायक-नायिकायें, गायक-गायिकायें, निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ नेतागण तक जो हिन्दी में आये, वे अधिक प्रसिद्ध हुए।
अष्टम अनुसूची की हिन्दी–हित में,पुनः समीक्षा हर हाल में अपेक्षित है।
अनावश्यक को अष्टम अनुसूची तथा आवश्यक की उपेक्षा से असंतोष तो पनपेगा ही ना, नीति-नीयत बदलनी होगी। अष्टम अनुसूची की हिन्दी-हित में,पुनः समीक्षा हर हाल में अपेक्षित है। मैं किसी के पक्ष या विपक्ष की बात नहीं कह रहा हूं मैं तो बिल्कुल वही कह रहा हूँ, जो तटस्थ भाव से एक साहित्कार, भारत की संस्कृति के भक्त को कहना चाहिये। फिर भी, यदि मेरा कथन किसी को चोट पहुँचाता हो तो, विनम्रतापूर्वक क्षमा-याचना और आग्रह भी करता हूं कि सम्पूर्ण संसार की संस्कृति से बिल्कुल श्रेष्ठ हमारी संस्कृति है जो हमारे और आपके लिए वंदनीय है।हमारी संस्कृति,हमारी सभ्यता हमारी भाषा ही हमारी पहचान हैं।हमें अपनी सभ्यता संस्कृति और भाषा पर गर्व करना चाहिए।
दयाशंकर
राष्ट्रपति पुरस्कृत,साहित्यकार