zakhmee sach – ज़ख्मी सच / सीताराम चौहान पथिक

zakhmee sach – ज़ख्मी सच / सीताराम चौहान पथिक

प्रस्तुत  कविता में लेखक के  द्वारा  व्यक्त किया गया है कि भारत की  आजादी में कितने महापुरुषों ने अपने जीवन की आहुति दी , लेकिन  आज भी ये कटु सत्य है कि शासक   व्याप्त है ,  जो हमारी  संस्कृति को प्रतिदिन नुकसान पहुँचता रहता है।  इससे  लेखक  काफी  दुखी  है रचना का संदेश साफ़ है  कि हमे भारतीय भाषा , वेशभूषा , संस्कृति , संस्कार , खान- पान आदि  का सम्मान करते हुए अपने जीवन को जीना है , ये छोटे कदम  देश को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।

 

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ज़ख्मी सच 


न जाने कितनी बार, कत्ल हुआ है सच ।
न जाने कितनी गोलियों, सीने में खाए है सच ।।

न जाने कितनी बार सलीबो पे चढ़ाया गया है सच ।
न जाने कितनी बार लहू में नहलाया गया है सच ।।

न जाने कितने नश्तर चुभोए है सितमगर ने ।
हर आह पे कहकहे लगाए हैं ज़माने ने ।।

गांधी- मसीहा, तुमने गोलियों सलीबो से क्या पाया ?
कुरबानियों की फसल भी कम पड़ गई जमाने में ।।

हर सांस पे पहरा बिठाया गया है- तुम क्या जानो ।
हंटर  के ज़ख्म ताजा हैं अभी, तुम ये क्या जानो ।।

आज भी वक्त का अंग्रेज  काबिज़ है हमारी धड़कनों पर
हर मासूम पथिक, तड़पता है सुबहो- शाम, तुम क्या जानो ।।


  • सितमगर– अत्याचारी
    सलीब – – क्राॅस , हंटर – कोड़े
    वक्त का अंग्रेज़ — शासक
    काबिज़- -जिसका शासन हो

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सीताराम चौहान पथिक
नई दिल्ली ।

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