अन्तर्स्वप्न | ‘फुलवारी’ पर एक बाल गीत / हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
अन्तर्स्वप्न | ‘फुलवारी’ पर एक बाल गीत / हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
अन्तर्स्वप्न
सुनहरी भोर की बेला ,
धरा का रूप अलबेला।
लगे हैं पंख सपनों को
सुहाना स्नेह का मेला ।1।
बुझाने प्यास अन्तर की,
बढ़ो विस्तीर्ण पथ पर तुम।
निरखते छॉव तरु-तर के,
भरो बॉहों में अम्बर तुम।2।
मलय के साथ गाओ तुम
प्रगति के गीत अधरों पर।
करो संकल्प तो मन में
मचलना मीत लहरों पर ।3।
नहीं जाये चली छूकर ,
महकती गन्ध माटी की।
हो उर्वर विश्व की धरती ,
थिरकती फूल की घाटी ।4।
चलो अब साथ सब मिलकर,
नया सपना सजाना है ।
नहीं अब नींद आ पाये ,
जगो सबको जगाना है ।5।
यही हो धर्म अपना हम,
करें नित देश का वन्दन ।
रहे खुशहाल प्रिय भारत,
बिखेरे नित मलय चन्दन ।6।
‘फुलवारी’ पर एक बाल गीत
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,
देखो इस फुलवारी में ।
बहे प्रदूषण-मुक्त पवन,
उन्मुक्त सहज फुलवारी में।टेक।
पत्तों के झुरमुट से देखो,
कोयल गीत सुनाती है ।
गुन-गुन करते भौंरे झूमें,
कली-कली मुसकाती है।
चहॅक रही वह चिड़िया देखो,
महक रही फुलवारी में ।
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,
देखो इस फुलवारी में।1।
मखमल जैसी दूब मुलायम,
मॉ की चूनर धानी है,
डाल-डाल मनभावन पत्ते,
लगता बरसा पानी है ।
मनमोहक यह छटा अजूबी,
दिखती नित फुलवारी में।
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,
देखो इस फुलवारी में ।2।
दीदी-भैया ,पापा-मम्मी,
यहीं घूमने आते हैं ।
जल्दी सोकर, जल्दी उठकर,
सैर करो, समझाते हैं।
हम सब भी अब सैर करेंगे,
अपनी इस फुलवारी में।
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,
देखो इस फुलवारी में ।3।
हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’
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