ghar aur makaan hindi kavita /सीताराम चौहान पथिक

घर और मकान 

(ghar aur makaan hindi kavita)


घर मकान कब बन गया ,
भनक   पड़ी नहिं कान ।
चूना   पत्थर ईंट मिलि ,
चुरा    ले    गए   शान ।

मुखिया दुखिया हो गया ,
बच्चे    बस    गए दूर ।
हाय , बुढ़ापे   ने किए ,
सपने    चकनाचूर । ।

बूढ़ी मां ने चाव से ,
बेटे दिए बियाय ।
चेरी बन कर रहो तुम ,
बहु ने दिया बताय ।

मां लक्ष्मी पर – बस हुई ,
चुभा हॄदय में शूल ।
जाते – जाते थमा गई ,
चिर – वियोग सम फूल ।।

घर मकान अब हो गया ,
बूढ़ा पर – बस शैष ।
शुभ चिंतक परिवार का ,
बचा – खुचा अवशेष ।।

महक शारदा कमल की ,
आहत मन को भायी ।
लिखे ग्रन्थ अनवरत दस ,
सुरभि अनन्त समायी ।।

हुई शारदा की कॄपा ,
व्यथित पथिक सुनाम ।
दिया तले फिर भी तमस ,
मिला सुयश अभिराम ।।

घर मकान की विषम स्थिति,
लेखनि थामे मौन ।
वॄद्ध और असहाय को ,
वाणी देगा कौन ॽॽ

वॄद्ध पथिक की लैखनी ,
सदा शारदा – ध्यान ।
सभी ओर से मिल रहे ,
मान और सम्मान ।।

विरह – पीर हिय सल रही ,
सम्मानों को ठेस ।
चल खुसरो घर आपने ,
यह देस हुआ परदेस ।।

घर — जहां घर के लोग मिल
कर रहते हों।
मकान — जहां केवल पति
पत्नी और बच्चे हों

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सीताराम चौहान पथिक

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