रचनाकार बाबा कल्पनेश की हिंदी कविताएं
रचनाकार बाबा कल्पनेश की हिंदी कविताएं
१.दीपक गान
जहाँ पर घूर जलाकर दीप।
करो उजियार पले सुख सीप।।
तभी यह पर्व बने खुशहाल।
रहे तब उच्च सदा निज भाल।।
प्रकाश मिले सबको भरपूर।
मिटे अँधियार सदा मजबूर।।
सहें न गरीब यहाँ दुख लेश।
अमीर रहें सब सुंदर वेश।।
करे तब तोष महान प्रदान।
सदा शुभ दायक दीपक गान।।
मिला यह माँ उर से शुभ ज्ञान।
किए नव निर्मित है पहचान।।
यही पहचान रहे नित नेक।
करूँ जिससे शिव का अभिषेक।।
प्रकाश जहाँ रहता लवलेश।
वहीं नितराम रहें अवधेश।।
गणेश वहीं रहते छविमान।
मिटे हर क्लेश कटे व्यवधान।।
सुशोभित हो रहता यह पर्व।
भरे रहते सुख से नित सर्व।।
वरें धनदा निज श्रेष्ठ वितान।
वहीं सुख दायक जान विहान।।
अमावस खो रहती पहचान।
दिया तम का हरता अभिमान।।
गिरा नित पूजित हो जिस ठाँव।
वहीं हरि जी करते निज छाँव।।
मिले तब भक्ति मिटे हर खार।
रहे नित गंग प्रवाहित धार।।
२. दीपदान
हो प्रकाश का प्रसार,वेद का विधान जान।
भारती प्रथा महान,दीपदान योगदान।।
कीजिए सुबंधु आप,पर्व आ गया विशेष।
धारणा धरो प्रकाश,अंधकार हो निशेष।।
वीयर्वान- तेजवान,प्राणवान हो प्रधान।
हों सुखी सभी प्र-जान,विश्व भी करे सुगान।।
प्रेम का प्रसार नित्य,माँगता यही सुराज।
योग कृष्ण का विधान,कीजिए सदा सुकाज।।
लेशिए महान दीप,आत्मवानता प्रदीप।
पालना तुम्हें सुयोग,मोतियाँ प्रकोष्ठ सीप।।
बल्ब का प्रकाश मात्र,बाहरी प्रकाश जान।
दीपदान आत्म सत्य,मानवीय हो सुगान।।
जो अशोभनीय कृत्य,मित्र त्याग छुद्र जान।
चंचला नहीं महान,ज्ञान दीप ही महान।।
विद्यमान राम जान,जीव-जीव पूज्यमान।
प्रेम ही प्रधान जान,हो यही प्रदीप दान।।
सूर्य रश्मि का प्रकाश,चंद्र रश्मि का प्रसार।
मानवीय भाव बोध,कीजिए सदा प्रचार।।
कार्य हो तभी विशेष,शेष अंधकार योग।
दीपदान का विधान,मेटता सभी कुरोग।।
ज्ञान का महान पर्व,आप कीजिए सुघोष।
हो अमा प्रकाश युक्त,भारतीयता सुपोष।।
अर्थवान पर्व गान,छंद संविधान जान।
लेखनी महान चाह,कीजिए सुपर्व गान।।
३.पावन यह ऋषिकेश
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अति भावन।
भर देता आनंद,हृदय जीवन हरषावन।।
कर पाऊँ कल गान,स्वरित गंगा माँ बोलें।
बनो सरलतम आप,प्रथम अवगुंठन खोलें।।
गीत लिखो हितवाह,मृदुल जनता के हित में।
सबके हित की चाह,धरो सुखकारी चित में।।
करो आचरण श्रेष्ठ,चरण छूकर के बावन।
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अतिभावन।।
यहाँ श्रेष्ठ हैं संत,दृगों से दर्शन कर लो।
जितना चाहे नीर,यहाँ अमृत है भर लो।।
धरती भर से श्रेष्ठ,यहाँ नर-किन्नर आते।
हो जाते मन मुग्ध,अधर से कब गा पाते।।
जैसे यहाँ विभात,अहर्निश करता धावन।
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अति भावन।।
किए अधिक अपमान,पिता ने टूटे सपने।
ध्रुव ने गाया गान,मधुर जीवन के अपने।।
ऋषियों की यह भूमि,सदा से है पहचानो।
लिख सकते तब गीत,प्रभा कविता के तानो।।
रखो हृदय को खोल,यहाँ प्रियतम का आवन।
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अति भावन।।
श्री गीता जी भिक्षु,कुटी का आश्रय पाकर।
सद्गुरु जो अनमोल,दिए उसको अपना कर।।
करो नित्य विश्राम,पुलिन गंगा के आकर।
माँ का यह वरदान,लखो देती लहराकर।।
अविरल कर लो धार,सभी जन कहें सुहावन।
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अति भावन।।
अनसुलझी हर डोर,यहाँ सुलझाया जाता।
यही एक ले लक्ष्य,यहाँ पर आया जाता।।
वस्तु सकल संसार,गाँव-घर अपना ले ले।
जिससे उसका प्यार,वही वह सपना ले ले।।
करे उसी से प्रीत,गहे जो सुख पहुँचावन।
पावन यह ऋषिकेश,लगे मन को अति भावन।।
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