बाबा कल्पनेश की छंद रचनाएँ | Pushp Aur kantak

बाबा कल्पनेश की छंद रचनाएँ | Pushp Aur kantak

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पुष्प और कंटक  

छंद-दुर्मिल

यह कैसा संकट,पथ के कंटक,फिर-फिर शीश उठाते हैं।
ये डाली-डाली,हे उर माली,देखे पुष्प लुभाते हैं।।
जो उलझे इनमें,पल में-छिन में,नष्ट त्वरित हो जाते हैं।
ज्यों कीट-पतंगे,या भिखमंगे,उलझे फिर से जाते हैं।।

गुरुवर से बोलो,निज उर खोलो,भव से पार लगा दीजे।
यह शिष्य आपका,मनस्ताप का,उर से भाव भगा दीजे।।
हो जैसे संभव,जग का आसव,लालच लगे बचा लीजे।
हे भोले शंकर,बड़ा भयंकर,पीकर स्वयं पचा लीजे।।

निर्मल चित होकर,मन को खोकर,प्रेम भाव यह पान करे।
कर्तव्य निभाये,उर हर्षाये,अपनापन यह दान करे।।
हो मंगल दर्शन,पावन पर्शन,नित प्रति ही यह चाहे हो।
बस इतनी शिक्षा,गुरुवरदीक्षा,निज जीवन अवगाहे हो।।

क्या पाना-खोना,चाँदी-सोना,यह तो एक खिलौना है।
हे जीवन स्वामी,जग विश्रामी,क्या जाने यह बौना है।।
यश-अपयश घातक,सब कुछ पातक,शरण आपके यह आया।
जो मंगलकारी,हो व्यवहारी,वैसी कीजे अब दाया।।

क्या करे शोध यह,नहीं बोध यह,दृष्टि दान इसको दीजे।
है जो भी करतल,सरके पल-पल,जितनी वस्तु सभी छीजे।।
जग जीवन करता,फिर संहरता,मंगल दृष्टि पसारो जी।
जो असुर बढ़े हैं,शीश चढ़े हैं,इनसे प्राण उबारो जी।।

आतंकी बाढ़े,निज गुन काढ़े,रुदन चतुर्दिक् होता है।
जग जीवन रोये,धीरज खोये,दुखद लगाए गोता है।।
प्रभु दौड़ लगाएँ,इन्हे बचाएँ,यही लेखनी गाती है।
तव महिमा गाकर,हृदय लगाकर,नर्तन कर मदमाती है।।


हिंदी भाषा

विधा-दुर्मिल छ्द

विधान-10,8,14 पर यति=32मात्रा,आदि जगण(121)रहित,अंत 2 गुरुअनिवार्य

यह हिंदी भाषा,उर अभिलाषा,भारत भाग्य विधाता है।
यह जन-जन की है,मन-मन की है,राष्ट्रवाद उद्गाता है।।
साथी सब आएँ,मिल दुहराएँ,अपनी भाषा प्यारी है।
इसको अपनाएँ,रचें ऋचाएँ,कवियों ने हुंकारी है।।

निज आँखें खोलें,हर्षित बोलें,हम सब हिंदी भाषी हैं।
हर काम-काज में,निज समाज में,हिंदी के अभिलाषी हैं।।
जग सारा देखे,तब उल्लेखे,सहज-सरल यह मन मोहे।
हम हिंदी हिंदी,माथे बिंदी,विश्व भारती के सोहे।।

मत करें उपेक्षित,जो जन शिक्षित,मति में रखकर के पाहन।
यह संस्कृत जाया,निर्मल काया,करे जगत शुभ अवगाहन।।
सुन इसकी वाणी,बुध जन प्राणी,नींद त्याग करके जागे।
स्वर इसके सुनकर,निज मन गुनकर,गोरे भारत से भागे।।

अंग्रेजी छोड़ो,धारा मोड़ो,प्यारे भारत जन मेरे।
यह वक्ष खुला है,स्वच्छ धुला है,आओ मेरे हिय डेरे।।
पहचान बनाओ,छवि चमकाओ,विश्व लगाएगा फेरे।
तब खिले लालिमा,मिटे कालिमा,विश्व पटल पर जो घेरे।।


राम

विधा-हरिगीतिका छंद

विधान-प्रतिचरण 28 मात्राएँ,14,14 पर यति,5 ,12,19 और 26 वीं मात्रा लघु,चरणांत 1 2,चार चरण,दो-दो चरण तुकांत।

मापनी-2212 2212 2212 2212

गा गीत यदि तू राम का,भव सिंधु निश्चय पार हो।
इस पार जीवन हो सुखद,भव पार का आधार हो।।
गतिशील यह संसार है,सब छूट जाए हाथ से।
चिंतन नहीं कुछ और कर,ले संत रज धर माथ से।।

है भाग्य तेरा जान ले,सत्संग का अवसर मिला।
भव सिंधु के इस धार में,हरि भक्ति का पंकज खिला।।
लिख छंदमय अब गीत तू,आनंद ही आनंद हो।
भव फंद जितने नष्ट हों,यह जीव भी गत द्वंद हो।।

तुलसी तरे मीरा तरीं,रैदास अपने तर गये।
जो गीत गाए राम के,वे नाम भी निज कर गये।।
यह जीव का आधार है,यह धारणा उर धार ले।
हैं राम सब में एक ही,हे जीव तू स्वीकार ले।।

यह भिन्नता भी सत्य है,पर बाहरी परिवेश है।
जो जीवधारी देखता,उर मध्य वह हरिकेश है।।
तू चक्षु निज अब खोलकर,हर ठाँव उसको देख ले।
बस एक प्रेमिल दृष्टि ले,उर पृष्ठ निज उल्लेख ले।।

गुरुदेव का अभिमत यही,वह देह बिल्कुल है नहीं।
हर जीव में हर ठाँव में,वह एक ही है हर कहीं।।
यह वेद का भी सार है,यह संत मत का सार है।
हर ज्ञान का विज्ञान का,बस एक यह आधार है।।


मनहरण घनाक्षरी

8, 8, 8, 7

हिंदी का विशाल भाल,देख-देख हूँ निहाल।
श्रेष्ठ कवि हैं मराल,आनंद त्रिकाल है।।
बिंदी है ललाट सोहे,छंद के प्रबंध मोहे।
पढ़ के कबीर दोहे,मुग्ध उर ताल है।।
प्राची दिश भाल भव्य,बाल रवि देख नव्य।
भारत हुआ है सव्य,विगत प्रवाल है।।
प्रभा काल शंखनाद,टूटते सभी प्रवाद।
पूर्ण हृदय आह्लाद,लाल हुआ गाल है।।

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बाबा कल्पनेश
श्री गीता कुटीर,गंगा लाइन, स्वर्गाश्रम-ऋषिकेश

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