kavita-sangrah/कविता- संग्रह प्रकाशित होने पर

कविता- संग्रह प्रकाशित होने पर ।


कविता- संग्रह हुआ प्रकाशित
कवि के जीवन की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण घटना थी जिससे ,
यह संग्रह होता सम्मानित ।

सोचा    था  समाज    बदलेगा ,
विचार-क्रान्ति से कुछ सुधरेगा ।
नेता     तो     है    घड़े — चीकने ,
जनाक्रोश     सिर    चढ़ बोलेगा ।

यह    नेता    बापू   के बन्दर ,
आज   नये सांचे  में ढल कर ।
आँख, कान, मुख बंद किए हैं ,
सच्चाई    से दूर निकल कर ।

जन -संघर्ष  छिड़ेगा जिस दिन
एक     नया   इतिहास   बनेगा ।
सत्ता     की   चौखट पर फिर से ,
शोषित    का    अधिकार   बढ़ेगा ।

जात-पात ना ऊंच – नीच ,
सब समानता सुख भोगेंगे ।

आरक्षण ब्रह्मास्त्र ना होगा ,
राम – राज्य के दिन लौटेंगे ।

जन – प्रतिक्रिया

कविता – संग्रह लोगों ने देखा
व्यापारिक नजरों का लेखा ।
पन्ने पलटें — ली जम्हाई ,
बोले – बस करो कवि भाई ।

पुस्तक कम पॄष्ठो मैं क्यों है ॽ
राष्ट्रीयता     पर  बल क्यों है ॽ
क्यों   करते हो कलम घिसाई ,
छोड़ो    चिन्ता – करो  कमाई ।

कुछ   बे – सुर गीतों को लिखो
या इश्क – मुहब्बत जासूसी पर ।
जादूई      किस्से   लिख  डालो ,
फिल्मों    की  कानाफूसी  पर ।

पुस्तक   हाथों – हाथ   बिकेगी ,
लक्ष्मी    रोके   नहीं    रुकेगी ।
संस्करण     कम    पड़   जाएंगे
जनता   भी   लेकर  ही रुकेगी ।

सोचो कवि – क्या राष्ट्र जागरण
कविता  से   यह तुम पा जाओगे ।
औद्योगिक    क्रांति   में भावनाएं,
हैं व्यर्थ , सुकवि तुम पिछड़ जाओगे ।

कवि का कथन —

अरे स्वार्थ की ऐनक बदलो ,
परोपकार मन में उपजाओ ।
आत्म- तुष्टि से भर जाओगे ,
देश – प्रेम की अलख जगाओ

मैं   हूं   इक   साहित्यकार ,
आदर्श समाज का पक्षकार ।
दर्पण  तुमको  दिखलाता हूं ,
पहचानो स्वयं , भारत कुमार

गहरी निंद्रा से जागो तुम ,
यह   राष्ट्र   दुहाई देता है ।
तुम भूल गए भारत मां को ,
आंचल  जो दुहाई देता है।

जागो — भारत के नर – नारी
कुछ मातॄ – भूमि ऋण की सोचो ।
लाखों का धन – संग्रह अनुचित ,
जो    है   दरिद्र — उनकी सोचो ।

हैं समय अभी सम्भल जाओ
वरना  इतिहास   डुबो देगा ।
सर्वत्र   टंगी  है   संगीनै ,
घर – भेदी कोई चुभो देगा ।

अब समय आ गया है निर्णय ,
हर    हालत   में   लेना ज्ञोगा ।
दुष्टों – भ्रष्टों और देश द्रोहियों ,
से      लोहा      लेना       होगा ।

कविता- संग्रह तो संकेतक ,
राष्ट्र-भावना कर्म – बोध का ।
यह बिके , ना बिके किन्तु तुम्हें ,
मंथन   करना है आत्म बोध का

भारत – उपेक्षा के संक्रामक ,
नेताओं से है राष्ट्र अपमानित
राष्ट्र धर्म और संस्कृति के ,
प्रबल विरोधी हैं सम्मानित ।

उठो    राष्ट्र   के   पहरेदारों ,
दलगत राजनीति से उभरो ।
राष्ट्र सशक्त बनाना है तो ,
आस्तीन के सांप को कुचलो‌

यदि तुम यह सब कर पाओगे
ध्वजा  कीर्ति की फहराओगै ।
पथिक, ना राष्ट्र अपमानित होगा ,
स्वाभिमान सम्मानित होगा।
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सीताराम चौहान पथिक
दिल्ली

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