Maa par kavita-ममता का आँचल/सीताराम चौहान पथिक
Maa par kavita
ममता का आँचल
मां , मुझे इक बार आंचल में ,
छिपा लो —-थक गया हूं ।
ममता भरी लोरी सुना दो ,
थपथपा दो —- थक गया हूं
तुमको देखा नहीं किन्तु अनुभव किया है ,
ममता की देवी सदा मानता हूं
तुम्हीं गंगा यमुना सी बहती रही हो
सदा मन से मै तो यही मानता हूं ।
झिलमिल सितारों में सब से प्रकाशित ,
सितारा तुम्हें मानता आ रहा हूं ,
सुख – दुःख निजी इनसे बांटे हैं मैंने ,
सितारों को मां मानता आ रहा हूं ।
परमात्मा में भी , मां तुम छिपी हो ,
प्रकॄति ने भी ममता तुम्हीं से है पाई ।
विमुख हो गया था – मैं जब दुधमुंहा था ,
दादी का ले रूप – ममता लुटाई ।
विमुख आज भी हूं मैं अपने सगो से ,
फिर भी कर्तव्य की डोर थामे खड़ा हूं ।
मेरे आज अपने पराए से लगते ,
है जीवन यही -अग्निपथ पर खड़ा हूं ।
अभिमन्यु सा बनके मैं रह गया हूं ,
संघर्ष रत हूं निजी चक्रव्यूह में
कवच अपनी आशीष का – मुझको दे दो ,
विजयी बन सकूं – इस विषम चक्रव्यूह में ।
मां , तुम जहां भी हो – आशीष देना ,
भंवर में फंसा हूं – किनारे लगाना ।
भटकता हुआ भीष्म हूं मैं तुम्हारा ,
अमिय – बूंद देकर अमरता जगाना ।
मां, अपने आंचल में – दो पल सुला लो ,
स्नेह- ऊर्जा तुमसे मैं पा सकूंगा ।
जो दायित्व आधे – अधूरे बचे हैं ,
पथिक पूर्ण करके मैं – तुमसे मिलूंगा ।।
सीताराम चौहान पथिक
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