kuchh log khud ko maseeha banae phirate hain/ग़ज़ल
कुछ लोग ख़ुद को मसीहा बनाए फिरते हैं।
(kuchh log khud ko maseeha banae phirate hain)
कुछ लोग ख़ुद को मसीहा बनाए फिरते हैं।
न जाने कौन सा क़िस्सा सुनाए फिरते हैं।।
कभी जो मांगते फिरते थे चिराग़ मुझसे।
आज वो सूरज का तमग़ा लगाए फिरते हैं।।
अजीब दौर कि तमाशबीनों की भीड़ में।
लोग ख़ुद को ही तमाशा बनाए फिरते हैं।।
ये जो मसखरे हैं,बहुत टूटे हैं अंदर से।
ये और बात है सबको हंसाए फिरते हैं।।
मतलब निकलते ही भुला देती है दुनिया।
एक बस हम हैं जो रिश्ता निभाए फिरते हैं।।
अब देखिए मिलता है किसे ख़ज़ाने का पता।
कई लोग हाथ में नक्शा उठाए फिरते हैं।।
हक़ीक़त ये है कि पैरों तले ज़मीं भी नहीं।
ग़ुरूर इतना की आसमां उठाए फिरते हैं।।
छोड़कर ” राज” ज़माने की फ़िक्र ,खुश रहिए।
बेवज़ह सबका सदमा उठाए फिरते हैं।।
राजेन्द्र वर्मा “राज”
रायबरेली (यू पी)
9450058874
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